आखिर कब?

//आखिर कब?

आखिर कब?

हँसती थी, मुस्काती थी,
बाबुल के मन को भाती थी,
लाड़- प्यार में पली हुई,
धीरे धीरे बड़ी हुई,
अब शादी की बात उठी,
खुशी के मारे वो झूम उठी,
शादी कर, लिए आंखों में प्यार,
बसाने चली थी नया सँसार,
यूँ तो बाबुल ने दहेज़ बहुत भिजवाया था,
पर उनको रास ना आया था,
और दहेज़ की कर ली माँग,
हाय! विधाता ने रचा ये कैसा स्वांग,
लड़की नही धनी थी,
बाबुल के पास पैसों की कमी थी,
जनता था लाड़ली उसकी सुखी नही रह पाएगी,
पर उसको कुछ ना बताएगी,
जाने कब वो हँसेगी दोबारा,
उजड़ चुका था उसका सँसार सारा,
जाने कब वो पहले हंसी थी,
एक दिन देखा तो मरी पड़ी थी,
वह मरी नही थी, गया था उसको मारा,
कब पूछेगा ये सँसार सारा,
इस राक्षस दहेज़ की आग कब बुझेगी?
कब नव यौवन को बर्बाद करना बंद करेगी?
आखिर कब?

यह कविता मैंने 13 साल की उम्र में रानी मुखर्जी की मेहंदी फ़िल्म से प्रभावित होकर लिखी थी। उस पिक्चर ने मुझ पर बहुत ही गहरा असर डाला था और भावुक होकर मैंने यह कविता लिखी।
उम्मीद है आपको पसंद आई हो।

By | 2020-07-27T10:57:10+00:00 July 27th, 2020|Poetry|1 Comment

One Comment

  1. Sudevi Yadav July 29, 2020 at 3:42 am - Reply

    Heart touching poem

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